पन्ना के खनन क्षेत्र में, एक आदिवासी महिला की यात्रा

समीना यूसुफ द्वारा लिखित

हमारे समाज में हम सभी के बीच ऐसी भी महिलाएं हैं जो अपने जीवन में संघर्ष की मिसाल हैं, जिनके दर्द और बेबसी की कहानी लिखना कठिन है। इसी भीड़ में कुछ ऐसी भी महिलाएं हैं जो दो वक्त की रोटी कमाने और परिवार को पेट भर खाना खिलाने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करती हैं, फिर भी उफ्फ तक नहीं करतीं। ऐसी ही एक कहानी महिला मजदूर मिथला आदीवासी की है जिसके संघर्ष के बारे में जो भी लिखूं, कम होगा।
       

आदिवासीमहिला

पन्ना जिले के माझा गांव की है मिथला, जिनकी उम्र सिर्फ 35 साल है। इतनी कम उम्र में मिथला ने बहुत बड़े बड़े संघर्ष किये हैं। मिथला को जन्म देते ही उसकी मां की मृत्यु हो गई, दूसरा कोई भाई या बहन भी नहीं थे, पिता और बूढ़ी दादी थी, लेकिन पिता भी पैर से विकलांग थे, जिस वजह से वे कोई  काम नहीं कर पाते थे। जैसे-तैसे 5 वर्ष की उम्र तक दादी ने  मिथला को पालपोस दिया, उसके बाद 5 वर्ष की उम्र से ही उस पर घर की जिम्मेदारी आ गई। वह अपने माता पिता की अकेली संतान थी, इसलिए दादी और विकलांग पिता के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी भी उसी के सर पर आ गई। मिथला पत्थर की खदानों में बाल मजदूरी करने लगी। 5 साल की इस छोटी सी उम्र में जब उस छोटी बच्ची को पालने के लिए परिवार की जरूरत थी, उस उम्र में  इस बच्ची ने अपने परिवार को पालने की जिम्मेदारी ले ली और अपना  बचपन इन खदानों में ही खो दिया। वह बच्ची जिम्मेदारियों का बोझ अपने कांधों पर उठाए लगातार खदानों में पत्थर तोड़ने का और तसला  ढोने का काम करती रही।

जब मिथला 15 साल की हुई तो उसकी शादी ग्यासु आदिवासी से हो गई। ग्यासु पत्थर की खदानों में काम करते थे, उन्हें पर्याप्त मजदूरी न मिलने के कारण पत्नी मिथला भी पति के साथ  मजदूरी करने जाने लगी। इसी दौरान मिथला गर्भवती हो गई, और इसी अवस्था में वह खदानों में काम करती रही।16 साल की उम्र में मिथला मां बन गई, और 20 साल  की उम्र  होते -होते वह 3 बच्चों की मां बन गई।  इसी बीच ग्यासु पत्थर की खदानों में काम करते हुए उन्हें  टी.बी 1 हो गई। खांसी, खून की उल्टियां होने लगीं, और उनकी हालत गंभीर हो गई। वे किसी काम को करने के लायक नहीं रहे। मजदूरी करके ग्यासु का 6 साल तक इलाज कराती रही, लेकिन ग्यासु को आराम नहीं मिला। अब मिथला की स्थति पहले से और भी ज्यादा खराब हो गई थी। बीमार पति के इलाज और अपने बच्चों को पालने के लिए मिथला अकेली दिन रात कड़ी मेहनत करती रही, पर उतना पैसा नहीं जुटा पाई जिससे वह ग्यासु की जान बचा पाती। वह 22 साल की उम्र में ही विधवा हो गई।

और फिर यहां से इस महिला के जीवन का एक और संघर्ष शुरु हो गया! पति की मृत्यु के बाद वह टूट गई, उसकी परेशानियों का अंत नहीं था, लेकिन आज भी इन कठिन परिस्थितियों से लड़ते हुए बच्चों को और खुद को संभाल रही है। मिथला के दो बेटे और एक बेटी है। अपने तीन बच्चों के साथ साथ वह अपने विकलांग पिता (रामा आदिवासी) की भी देख भाल कर रही है। सुबह उठकर घर का काम, बच्चों के लिए खाना पकाना, फिर मजदूरी पर जाना, शाम को बकरियां चराने के लिए जंगल जाती है। इतना ही नहीं पिता और बच्चों के लिए रात का खाना पकाकर वह  दूसरे के खेत की रखवाली करने के लिए खेत चली जाती है। रात के घने अंधेरे रास्तों को पार करके खेत पहुंचती है, खेत जाते समय जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए अपने  साथ कुत्ते ले जाती है। रात भर खेत की रखवाली करती है जिससे उसे साल भर का अनाज (गेहूं) मिल जाता है, कभी कभी अपनी बेटी चाहना जो अभी 15 साल की है उस को भी साथ में ले जाती है। बेटी को घर पर अकेले छोड़ने से उसे डर लगता है। और फिर सुबह उसी दिन चर्या के साथ मजदूरी के लिए चली जाती है, इस तरह  कभी भी उसके जीवन का संघर्ष खत्म नहीं हुआ।

मिथला कहती हैं, “खाली मजदूरी से घर  का खर्च चलाना मुश्किल होता है इसलिए मैं ज़्यादा मेहनत करती हूं ताकि अपने  पिता और बच्चों को पेट भर खाना खिला सकूं”।  परिवार की आजीविका और पोषण की स्थति सुधारने के लिए मिथला ने अपने छोटे से घर में दो साल तक मशरूम भी उगाए थे पर घर छोटा और जगह कम होने के कारण मशरूम लगाने के फायदों से भी वह वंचित रह जाती है।  वक्त और हालात ने मिथला को बहुत मजबूत बना दिया है। हर मुश्किल का वह डट कर सामना कर रही है। जो भी काम मिलता है, खूब मेहनत से करती है। किसी काम में पीछे नहीं हटती। पुरूषों से कई गुना ज्यादा मिथला मेहनत करती है। अपनी मेहनत पर भरोसा करती है। मिथला की हिम्मत और हौसले को हमारा सलाम! हमें गर्व है मिथला पर, और उनके महिला होने पर!

ऐसे बहुत सारे महिलाएँ हैं जो पन्ना के खनन प्रभावित इलाके के हैं जिनकी कहानी मिथिला की जीवन के संघर्ष के साथ मिलती है। खनन का महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और वे अक्सर अदृश्य और नजरअंदाज कर दी जाती हैं। महिलाओं के योगदान को पहचानने और उनके आगे बढ़ने के लिए सुरक्षित स्थान बनाने की आवश्यकता है।


1 2010 के करीब ग्यासु की मृत्यू हुई थी उस समय सिलिकॉसिस की जांच नहीं हो पाई थी और पन्ना में 2011 के पहले जिन मजदूरों  की  मौतें हुई उन्हें डॉक्टर टी.बी. ही कहते थे।

समीना यूसुफ

मध्य प्रदेश के पन्ना में पृथ्वी ट्रस्ट की प्रबंध ट्रस्टी हैं।