अंशू कुमार द्वारा लिखित
मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में पन्ना टाइगर रिजर्व के आसपास रहने वाली आदिवासी समुदायों के लिए रोजगार के संदर्भ में चुनौतियां बड़ी हैं। इस क्षेत्र में अधिकतम जंगल और पत्थर खदानों के होने के कारण, आदिवासी महिलाओं के लिए रोज़गार के विकल्प सीमित हो जाते हैं। ज़्यादातर आदिवासी समुदायों के पास पन्ना की खानों और खदानों में काम करने के अलावा आजीविका का कोई अन्य ज़रिया नहीं है; कई पत्थर खदानें जहाँ वे कभी काम करते थे, वे भी बंद हो गई हैं, और बहुत से लोग काम की तलाश में पलायन के लिए मजबूर हैं।
इस संदर्भ में, मशरूम की खेती एक नई आशा का संचार करती है। यहां के लोगों की मुख्य आजीविका खानों और खदानों पर निर्भर करती है, लेकिन खदानों के बंद हो जाने से बहुतों को रोज़गार की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इस समस्या का समाधान करने के लिए, महिलाओं को मशरूम की खेती के क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अब ऐसे में यहां की आदिवासी महिलाएं, जो परिवारिक आर्थिक संकटों और खदान के काम के साथ जूझ रही हैं, अब मशरूम की खेती के माध्यम से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रही हैं।
यह पहल, जिसका संचालन एन्वायरोनिक्स ट्रस्ट की सहायता से हो रहा है, न केवल महिलाओं को एक नई आजीविका साधन प्रदान कर रहा है, बल्कि उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार ला रहा है। इस प्रक्रिया में, आजीविका मिशन के तहत एन्वायरोनिक्स ट्रस्ट, ने इन्हें तकनीकी सहायता और प्रशिक्षण प्रदान किया है। यह एक ऐसा कदम है जो न केवल महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाता है, बल्कि उनके परिवारों के पोषण में भी सुधार लाता है। यह उम्मीद की गई है कि इससे गाँव की और भी महिलाएँ जुड़ेंगी, और इसके साथ ही रोजगार के और भी नए विकल्प खुलेंगे।
इसके साथ ही, यह महिलाओं को एक स्वतंत्र और सम्मानित जीवन जीने का अवसर भी प्रदान करेगा। ऐसी परिस्थिति में आर्थिक मुश्किलों में गुजर कर रहे आदिवासियों की कमाई के नये विकल्प खुलेंगे ।आदिवासी महिलाओं को मशरूम की खेती का प्रशिक्षण देना एक अच्छा कदम है; इससे उन्हें बहुत ज़रूरी आर्थिक मदद मिलती है और साथ ही उनके परिवारों के पोषण का भी ख्याल रखा जाता है। उनके लिए ये आत्मनिर्भर बनने का जरिया बन रहा है। आज हम एक ऐसी ही महिला की बात करेंगे, जो हौसलें और कड़ी मेहनत के बलबूते अपने रास्ते की सभी चुनौतियों को हराते हुए आत्मनिर्भर बनीं। इस महिला की सीखने की ललक ने इन्हें ऑयस्टर मशरूम खेती की कला में पारंगत किया और इन्होंने इसके ज़रिए अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया। इसे देखकर अन्य महिलाएं भी प्रेरणा ले रही हैं। तिरसिया की कहानी अकेले की कहानी नहीं है, आदिवासी बाहुल्य जिला मंडल में ऐसी कई महिलाएं और युवतियां है जो स्वयं आत्मनिर्भर तो हुई साथ ही अन्य महिलाओं और युवतियों को आत्मनिर्भर बनने की सीख देने के साथ उनके लिए मिसाल बनी हैं।
पन्ना जिले के आदिवासी बाहुल्य ग्राम पन्ना गाँव की 36 वर्षीय महिला तिरसिया बाई (आदिवासी)) जन्म से ही कमर से विकलांग है। जिस वजह से उसकी जिंदगी पहले से ही चुनौतीपूर्ण रही है। उसके पति इमरती लाल आदिवासी की मौत हो गई; उसके ससुर की भी मौत हो गयी, दोनों को सिलिकोसिस बीमारी थी; उसके दो बेटे और एक बेटी है। काम के विकल्प के अभाव में अब वो भी खदानों में काम करने के लिए विवश है। गाँव वालो के लिए ये घटना कोई नयी बात नहीं है और ना ही तिरसिया बाई के परिवार के लिए । सिलिकोसिस जैसी जानलेवा बीमारी उस गाँव के कितने लोगों को ही समय से पहले निगल चुकी है। पहाड़ से सटे इस गाँव में लोगो की जीवन आयु औसतन 40-50 ही था। खदानों में काम करने से होने वाले बिमारियों के बारे में सब कुछ पता होने के बाद भी लोग काम करने को मजबूर हैं। पति के जाने के बाद तिरसिया के परिवार के भरण-पोषण के लिए सरकार से हर महीने मिलने वाली सिर्फ 600 रुपये की मामूली पेंशन ही एक मात्र भरण-पोषण का माध्यम रह गया है। उनका बड़ा बेटा खदान में मजदूरी करता है, इसके बावजूद कि यही बीमारी (सिलिकोसिस) तिरसिया के पति को निगल गई थी, और छोटा बेटा गाँव में ट्यूशन पढ़ा रहा है। तिरसिया बाई को अपने बेटों पर पूरी तरह से निर्भर रहना पड़ रहा है।
लेकिन मशरूम प्रशिक्षण जिसका उल्लेख हमने शुरुआत में किया है, एन्वायरोनिक्स ट्रस्ट एनजीओ के पहल से जुड़ कर तिरसिया मशरूम की खेती में शामिल है, जिससे ना उन्हें केवल लाभकारी रोजगार मिल रहा है बल्कि आजीविका के लिए कुछ पैसे भी मिल रहे हैं. इसके फलस्वरूप, वह न केवल खुद के लिए एक लाभकारी रोजगार प्राप्त कर रही है, बल्कि अब उनके परिवार का भी भरण- पोषण हो रहा है.
यहां की महिलाओं को रोजगार के संदर्भ में सक्षम बनाने हेतू मशरूम खेती के प्रशिक्षण की सबसे अच्छी बात है कि इसकी इसकी अलग-अलग किस्मों की खेती साल भर कर सकते हैं। इससे साल भर कमाई होती रहती है। यह गौरतलब है कि ये महिलाएँ उन परिवारों से आती हैं जिन्होंने अपने सदस्यों को सिलिकोसिस के कारण खो दिया है, जो कि हवा में सूक्ष्म कणों के सांस के जरिए होने वाली फेफड़ों की बेहद गंभीर बीमारी है।
पृथ्वी ट्रस्ट से जुड़ी समीना युसूफ ने कहा कि एन्वायरोनिक्स ट्रस्ट 2021 से महिलाओं को प्रशिक्षण दे रहा है. मशरूम खेती की प्रशिक्षण देने के बाद, उससे जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारी दी जाती हैं जैसे कि मशरूम के बीज के बारे में, पॉलिथीन बैग और घास सहित तमाम जानकारी। ये लोग समीना युसूफ जी के सहयोग से कृषि विज्ञान केंद्र से 150 रुपये प्रति किलोग्राम पर ऑयस्टर मशरूम के बीज खरीदते हैं।
बकौल, समीना युसूफ, कई गाँवों में मसलन गांधी ग्राम, रानीपुर, सुनहरा, जरधोवा और माजा, इन पाँच गाँवों में सर्वेक्षण प्रक्रिया को पूरा किया गया, तदोपरांत, खदानों और पत्थर खदानों में काम करने वाले सिलिकोसिस पीड़ितों के परिवारों से आने वाली महिलाओं को चुना गया और उन्हें मशरूम की खेती में प्रशिक्षित किया गया। आगे बातचीत में उन्होंने बताया कि इसको शुरू करने का मुख्य मकसद गरीब आदिवासी महिलाओं के पोषण में सुधार करना, उनके परिवारों में प्रवासन को रोकना और उन्हें आजीविका का एक स्थिर और सुरक्षित साधन प्रदान करना है। उनका कहना है कि इस परियोजना को काफी सफलता मिली है। आदिवासी महिलाएँ मशरूम की खेती में रुचि ले रही हैं और इसके माध्यम से पैसा कमाने को लेकर उत्साहित हैं।
पन्ना जिले में मशरूम की खेती को बढ़ावा देने के लिए और भी कदम उठाने जाने चाहिए। इसके लिए विभिन्न योजनाओं को मूर्त रुप दिया जाना चाहिए, ताकि आदिवासी महिलाओं को और भी अधिक सहायता मिल सके। आख़िर में, यह उदाहरण दिखाता है कि महिलाओं के लिए समाज में सम्मान और समानता का माहौल बनाने में किसी भी क्षेत्र में उन्नति और सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इसलिए, हम सभी को मिलकर इस प्रयास का समर्थन करना चाहिए, ताकि हम समाज में समानता और विकास की दिशा में अग्रसर हो सकें।
हालाकिं शुरुआत में मशरूम उगाने के बाद बिक्री के लिए बाज़ार की खोज करना एक चुनौतीपूर्ण काम था, इसलिए गांव के नजदीक के छोटे शहरों/कस्बों में जाकर लोगों को व्यक्तिगत रूप से संपर्क करके पहली दफा की उपज को बेचना संभव हुआ। हालांकि बाजार तक मशरूम कैसे पहुंचे और इसकी सही मार्केटिंग कैसे हो इस सवाल से ये अभी भी जूझ रहे हैं। फिलहाल, अभी यहाँ जो भी महिलाएँ मशरूम उगाती हैं, उसे स्थानीय स्तर पर बेचती हैं। अगर कुछ भी बच जाता है तो वे उसका उपयोग अपने उपभोग के लिए कर लेती हैं जिसका इन्हें 250 रुपये प्रति किलोग्राम तक मिलता है। साथ ही, आदिवासी महिलाओं को मशरूम की खेती का प्रशिक्षण देने से न केवल उन्हें आर्थिक मदद मिलती है, बल्कि यह उन्हें स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का अहसास भी दिलाता है। इसके अलावा, यह एक प्राकृतिक और पर्यावरण के समन्वय का व्यवसाय है, जो आदिवासी समुदायों को अपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाए रखने में मदद करता है। इसके अलावा, मशरूम की खेती आदिवासी महिलाओं को नए और सामाजिक रूप से समृद्ध पूर्ण विकल्प प्रदान करती है, जो उन्हें अपने परिवारों के लिए सामर्थ्य और स्वतंत्रता का स्रोत बनाती है।